Monday, May 04, 2009

फ़रमान (a tribute to doordarshan series)

रखी थी कभी कही पे हमने..
अपने बचपन की यादों की नींव..
सुन्ना-सुनाना उस नीम के छाव में..
कुछ कहनियाँ, कुछ किस्से अजीब...

बेख़बर, बेपरवाह थे हम लोग
करते थे सारे जहाँ की बातें
वो मालगुड़ी के गलियों में खेलना
वो पचपन खम्बे, लाल दीवारें

नजाने क्यूँ आज यूही बैठे-बैठे..
भर रहा है दिल यादों की उड़ान..
शायद कही किसी गली-नुक्कड़ में..
छोड़ आया हुं मैं अपनी पहचान...

लगता था मिलेंगे कभी सपनों की..
ज़मीन और हक़ीक़त का आसमाँ..
है ख़बर की वो क्षितिज ये नहीं..
अभी है बाक़ी और भी इम्तिहाँ...

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