Wednesday, November 16, 2011

जीवन सार

सुस्त दोपहर
पीपल के छाव में
नर्म धूप सेकना

लहराती, नाचती
किरणों के जाल में
हरी पत्तियां

देख-देख उन्हें
पलकों का मेरे
सपनें बुनना

वह सुबह-शाम
नन्हीं अठखलियों  से
गूंजता आंगन

न होना पता
क्या हैं परेशानियाँ?
चिंता क्या? 

अब इस दौड़ में
है मुश्किल मिलना
फुर्सत ऐसी

है खुशकिस्मती
दो पल जो मिल जाए
चैन भरी

उदास है दिल
कुछ कह गया जैसे
डूबता सूरज

जो बीत गया
है वह भी अपना
फिर खोया क्या?

ज़िन्दगी जैसे
एक कशमकश है
आज और कल की

शाम होते-होते
निकले सभी घर की ओर
और तन्हा मैं

रात होने पर
सपनों से उठकर
हम भी चले

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